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तेरहवां अध्याय
उषा और सत्य
उषाका वर्णन बार-बार इस रूपमें किया गया है कि वह गौओंकी माता है । तो यदि 'गौ' वेदमें भौतिक प्रकाश या आध्यात्मिक ज्योतिका प्रतीक हो, तब इस वाक्यका या तो यह अभिप्राय होगा कि वह, दिनके प्रकाशकी जो भौतिक किरणें हैं उनकी माता या स्रोत्र है, अथवा इसका यह अर्थ होगा कि वह दिव्य दिनके ज्योति:प्रसारको अर्थात् आन्तरिक प्रकाशकी प्रभा तथा निर्मलताको रचती है । परंतु वेदमें हम देखते हैं कि देवोंकी माता अदितिका वर्णन दोनों रूपोंमें हुआ है, गौरूपमें और सबकी सामान्य माताके रूपमें; वह पर ज्योति है और अन्य सब ज्योतियां उसीसे निकलती हैं । आध्यात्मिक रूपमें अदिति, दनु या दितिके विपरीत, परा या असीम चेतना है, देवोंकी माता है, उधर 'दनुं' या 'दिति'1 विभक्त चेतना है और वृत्र तथा उन दूसरे दानवोंकी माता है जो देवताओंके एवं प्रगति करते हुए मनुष्यके शत्रु होते हैं । और अधिक सामान्य रूपमें कहें, तो वह 'अदिति' भौतिक चेतनासे प्रारम्भ करके ज्गत्स्तर -संबंधिनी जितनी चेतनाएं. हैं उन सबका आदिस्रोत है; सात गौएं, 'सप्त गाव: ', उसीके रूप हैं और हमें बताया गया है कि उस माताके सात नाम या स्थान हैं । तो उषा जो गौओंकी माता है, केवल इसी परा ज्योतिका इसी परा चेतनाका, अदिति-का कोई रूप या शक्ति हो सकती है और सचमुच हम उसे 1.113.19 में इस रूपमें वर्णित हुई पाते हैं--माता देवनामदितेरनीकम् । 'देवोंकी माता, अदितिका रूप ( या शक्ति ) ।'
पर उस उच्चतर या अविभक्त चेतनाकी ज्योतिर्मयी उषाका उदय सर्वदा सत्यरूपी उषाका उदय होता है और यदि वेदका उषादेवता यही ज्योतिर्मयी उषा है, तो ऋग्वेदके मंत्रोंमें हमें अवश्यमेव इसका उदय या आविर्भाव बहुधा सत्यके-ऋतके-विचारके साथ संबद्ध मिलना चाहिये । __________ 1. यह न समझ लिया जाय कि 'अदिति' व्युत्पतिशास्त्रानुसार 'दिति' का श्रमावात्मक है; ये दोनों शब्द बिलकुल ही भिन्न-भिन्न दो धातुओं '--अद्' और 'दि' से बने हैं । १८० और इस प्रकारका संबंध हमें स्थान-स्थान पर मिलता है । क्योंकी सबसे पहले तो हम यही देखते हैं कि उषाको कहा गया है वह 'ठीक प्रकारसे ॠतके पथका अनुसरण करती है', ( ॠतस्य पन्यामन्वेतीति साधु, (1-124-3 ) । यहां 'ॠतके जो कर्मकाण्डपरक वा प्रकृतिवादी अर्थ किये जाते हैं उनमेंसे कोई भी ठीक नहीं घट सकता; यह बार-बार कहे चले जानेमें कुछ अर्थ नहीं बनता कि उषा यज्ञके मार्गका अनुसरण करती है, या पानीके मार्गका अनुसरण करती है । तो इसके स्पष्ट मतलबको हम केवल इस प्रकार टाल सकते हैं कि 'पन्था ॠतस्य'का अर्थ हम सत्यका मार्ग नहीं, बल्कि सूर्यका मार्ग समझें । लेकिन वेद तो इसके विपरीत यह वर्णन करता है कि सूर्य उषा के मार्ग का अनुसरण करता है (न कि उषा सूर्यके ) और भौतिक उषाके अवलोकन करनेवालेके लिये यही वर्णन स्वाभाविक भी है । इसके अतिरिक्त, यदि यह स्पष्ट न भी होता कि इस प्रयोगका अर्थ दूसरे संदर्भोमें सत्यका मार्ग ही है, फिर भी आध्यात्मिक अर्थ बीचमें आ ही जाता है; क्योंकि तब 'उषा सूर्यके मार्गका अनुसरण करती है' इसका अभिप्राय यही होता है कि उषा उस मार्गका अनुसरण करती है जो सत्यमयका या सत्यके देवका, सूर्य-सविताका मार्ग है ।
हम देखते ह कि उपर्युक्त 1-124-3में इतना ही नहीं कहा है, बल्कि वहां अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट और अघिक पूर्ण आध्यात्मिक निर्देश विद्यमान है--क्योंकि 'ॠतस्व पन्यामन्वेति साधु', के आगे साथ ही कहा है 'प्रजान--तीव न दिशो मिनाति ।' "उषा सत्यके मार्गके अनुसार चलती है और जानती हुईके समान वह प्रदेशोंको सीमित नहीं करती ।" 'दिश:' शब्द दोहरा अर्थ देता है यह हम ध्यानमें रखें, यद्यपि यहां इस बातपर बल-देनेकी विशेष आवश्यकता नहीं है । उषा सत्यके पथकी दृढ़ अनुगामिनी है और चूंकि इस बातका उसे ज्ञान या बोध रहता है, इसलिये वह असीमता को, बृहत्को, जिसकी वह ज्योति है, सीमित नहीं करती । यही इस मंत्र- का असली अभिप्राय है, यह बात ५म मण्डलकी एक ॠचा (5-80-1 )से निर्विवाद रूपसे स्पष्टतया सिद्ध हो जाती है और इसमें भूलचूककी कोई संभावना नहीं रह जाती । इसमें उषाके लिये कहा है-द्युतद्यामानं वृहतीम् ॠतेन ॠतावरीं... स्वरावहन्तीम् । ''वह प्रकासमय गतिवाली है, ऋतसे महान् है, ॠतमें सर्वोच्च ( या ॠतसे युक्त ) है, अपने साथ स्व:को लाती है ।'' यहां हम वृहत्का विचार, स्वर्लोकके सौर प्रकाश का विचार पाते हैं; और निश्चय ही ये विचार इस 'प्रकार घनिष्टता और दृढ़तासे एकमात्रभौतिक उषाके साथ संबद्ध ।नहीं रह सकते । इसके १८१ साथ हम 7-75-1के वर्णनकी भी तुलना कर सकते है-व्युषा आवो दिविणा ॠतेन आविश्कृष्वाना महिमानमागात्त् । "द्यौमें प्रकट हुई .उषा सत्यके द्वारा वस्तुओंको खोल देती है, वह महिमाको व्यक्त करती हुई आती है ।" यहां पुन: हम देखते हैं कि उषा सत्यकी शक्तिके द्वारा सब वस्तुओंको प्रकट करती है और इसका परिणाम यह बताया गया है कि एक प्रकारकी महत्ता-का आविर्भाव हो जाता है ।
अन्तमें इसी विचारको हम आगे भी वर्णित किया गया पाते हैं, बल्कि यहां सत्यके लिये 'ॠत'के बजाय सीधा 'सत्य' शब्द ही है, जो 'ऋतम्'की तरह दूसरा अर्थ किये जा सकनेकी संभावनाके लिये अवकाश ही नहीं देता, सत्या सत्येभि र्महती महद्वि्भर्देवी देवेभि:... (7-75-7 ), ''अपनी सत्तामें सच्ची उषा देवी सच्चे देवोंके साथ महान् देवी महान् देवोंके साथ... ।'' वामदेवने अपने एक सूक्त ४-५१में उषाके इस ''सत्य" पर बहुत बल दिया है, क्योंकि वहां वह उषाओंके बारेमें केवल इतना ही नहीं कहता कि ''तुम सत्यके द्वारा जोते हुए अश्वोंके साथ जल्दीसे लोकोंको चारों ओरसे धेर लेती हो" 1, ॠतयुग्भि: अश्वै: ( तुलना करो 6.65.2 ) ,2 परन्तु वह उनके लिये यह भी कहता है-भद्रा ऋतजातसत्या: ( 4.51. 7 ), ''वे सुखमय हैं और सत्यसे उत्पन्न .हुई .सच्ची हैं ।'' और एक दूसरी ऋचामें वह उनका वर्णन इस रूपमें करता है कि ''वे देवियां हैं जो ऋतके स्थानसे प्रबुद्ध होती हैं ।''3
'भद्र' और 'ऋत'का यह निकट संबंध हमें अग्निको कहे गये मधुच्छन्दस्- के सूक्तमें विचारोंके इसी प्रकारके परस्परसंबंधका स्मरण करा देता है । वेदकी अपनी आध्यात्मिक व्याख्यामें हम प्रत्येक मोड़ पर इस प्राचीन विचार-को पाते हैं कि 'सत्य' आनन्दको प्राप्त करनेका मार्ग है । तो उषाको, सत्यकी ज्योतिसे जगमगाती उषाको, भी अवश्य सुख और कल्याणको लाने-वाला होना चाहिए । उषा आनन्दको लानेवाली है, यह विचार वेदमें हम लगातार पाते हैं और वसिष्ठने 7-81-3 में इसे बिलकुल स्पष्ट रूपमें कह दिया है-या वहसि पुरु स्पाहं रत्नं न वाशुषे मयः । ''तू जो देनेवाले-को ऐसा कल्याण-सुख प्राप्त कराती है, जो अनेकरूप और स्पृहणीय आनंद ही हे । '' वेदका एक सामान्य शब्द 'सूनृता' है जिसका अर्थ सायणने ' 'मधुर और ______________ 1. यूयं हि देवीॠॅतयुग्भिरश्वै: परिप्रयाय भूवनामि सद्यः: । ( 4-51-5 ) 2. वि तद्यउयुररुणग्भिरश्वैश्चित्रं भान्त्युपसश्च्द्रथाः (6-65-2) 3. ॠतस्य देवीः सदसो बुधानाः | (4-51-8) १८२ सत्य वाणी" किया है, परंतु प्रतीत होता है कि इसका प्रायः और भी अघिक व्यापक अभिप्राय ''सुखमय सत्य' है । उषाको कहीं-कहीं यह कहा गया है कि वह 'ॠतावरी" है, सत्यसे परिपूर्ण है और कहीं उसे "सुनृता-वती" कहा .गया है । वह आती है सच्चे और सुखमय शब्दोंको उच्चारित करती हुई ''सूनृता ईरयन्ती" । जैसे उसका यह वर्णन किया गया है कि वह जगमगाती हुई गौओंकी नेत्री है और दिनोंकी नेत्री है, वैसे ही उसे सुखमय सत्योंकी प्रकाशवती नेत्री भी कहा गया है, भास्वती नेत्री सूनृतानाम् ( 1 -92-7 ), और वैदिक ऋषियोंके मनमें ज्योति, किरणों या गौओंके विचार और सत्यके विचारमें जो परस्पर गहरा संबंध है, वह एक दूसरी ॠचा १. ९२. १४ में और भी अधिक स्पष्ट तथा असंदिग्ध रुपसे पाया जाता है-गोमति अश्वावसि विभावरि, सूनृतावति । ''हे 'उष:, जो तू अपनी जगमगाती हुई गौओंके साथ है, अपने अश्वोंके साथ है, अत्यधिक प्रकाशमान है और सुखमय सत्योंसे परिपूर्ण है ।'' इसी-जैसा पर इससे अधिक स्पष्ट वाक्यांश 1-48-2 में है, जो इन विशेषणोंके इस प्रकार रखे जानेके अभिप्रायको सूचित कर देता है-"गोमतीरष्वावतीर्विश्वसुविदः" । "उषाएं जो अपनी ज्योतियों (गौओं ) के साथ है, अपनी त्वरित गतियों ( अश्वों ) के साथ हैं और जो सब वस्तुओंको ठीफ प्रकारसे जानती हैं ।''
वैदिक उषाके आध्यात्मिक स्वरूपका निर्देश करनेवाले जो उदाहरण ऋग्वेदमें पाये जाते हैं, वे किसी भी प्रकार यहीं तक सीमित नहीं हैं । उषाको निरन्तर इस रूपमें प्रदर्शित किया गया है कि वह दर्शन व बोधको तथा ठीक दिशामें गतिको जागृत करती है । गोतम राहूगण कहता है, ''वह देवी सब भूवनोंको सामने होकर देखती है, वह दर्शनरूपी आंख अपनी पूर्ण विस्तीर्णतामें चमकती है; ठीक दिशामें चलनेके लिये संपूर्ण जीवनको जगाती हुई वह सब विचारशील लोगोंके लिये वाणीको प्रकट करती है ।" 1 विश्वस्य वाचमविदन् मनायो: ( 1 -92-9 ) ।
यहां हम उषाको इस रूपमें पाते हैं कि वह जीवन और मनको बंधन-मुक्त करके अधिक-से-अधिक पूर्ण विस्तारमें पहुंचा देती है और यदि हम इस उपर्युक्त निर्देशको यहीं तक सीमित रखें कि यह केवल भौतिक उषाके उदय होने पर पार्थिव जीवनके पुन: जाग उठनेका ही वर्णन है तो हम ऋषिके चुने हुए शब्दों और वाक्यांशोंमें जो बल है उस सारेकी उपेक्षा ही कर _____________ 1. विश्वानि देवी भूवनाभिचक्ष्या प्रतीची चक्षुएर्विया वि भाति । विश्वं जीवं चरसे बोधयम्ती विश्वस्य वाचमविदन्मनायोः || (ॠ. 1-92-9) १८३ रहे होंगे और यद्यपि, उषासे लाये जानेवाले दर्शनके लिये यहां जो शब्द प्रयुक्त किया गया है, 'चक्षु:', उसे केवल भौतिक दर्शनशक्ति को ही सूचित कर सकने योग्य माना जा सकता है तो भी दूसरे संदभोंमें हम इसके स्थान पर 'केतु' शब्द पाते हैं, 'जिसका अर्थ है बोध, मानसिक चेतनामें होनेवाला बोधयुक्त दर्शन, ज्ञानफी एक शक्ति । उषा है 'प्रचेता:, इस बोधयुक्त ज्ञानसे पूर्ण । उषाने, जो ज्योतियोंकी माता है, मनके इस बोधयुक्त ज्ञान-को रचा है, गवां जनित्री अकृत प्र केतुम् ( 1-124-5 ) । वह स्वयं ही दर्शनरूप है--''अब बोधमय दर्शनकी उषा खिल उठी है, जहाँ कि पहले कुछ नहीं (असत् ) था", वि ननुमुच्छादसति प्र केतुः ( 1-124-11 ) । वह अपनी वोधयुक्त शक्तिके द्वारा सुखमय सत्योंवाली है, चिकिस्थित् सूनृतावरि (4-52-4)
हमें बताया गया है कि यह बोध, यह दर्शन, अमरत्यका है--अमृतस्य केतु: ( 3 .61 .3 ) । दूसरे शब्दोंमें यह उस सत्य और सुखकी ज्योति है जिससे उच्चतर या अमर चेतनाका निर्माण होता है । रात्रि वेदमें हमारी उस अंधकारमय चेतनाका प्रतीक है जिसके ज्ञानमें अज्ञान भरा पड़ा है और जिसके संकल्प तथा क्रियामें स्खलनपर स्खलन होते रहते हैं और इसलिये जिसमें सब प्रकारकी बुराई, पाप तथा कष्ट रहते हैं । प्रकाश है ज्योतिर्मयी उच्चतर चेतनाका आगमन जो सत्य और सुखको प्राप्त कराता है । हम निरन्तर 'दुरितम्' और 'सुवितम्' इन दो विरुद्धार्थक शब्दोंका प्रयोग पाते हैं । दुरितमका शाब्दिक अर्थ हैं स्खलन, गलत रास्से पर जाना और औपचारिक रूपसे वह सब प्रकारकी गलती और बुराई, सब पाप, भूल और विपत्तियोंका सूचक है । 'सुवितम्'का शाब्दिक अर्थ है ठीक और भले रास्ते पर जाना और यह सब प्रकारकी अच्छाई तथा सुखको प्रकट करता है और विशेषकर इसका अर्थ वह सुख-समृद्धि है जो सही मार्ग पर चलनेसे मिलती है । सो वसिष्ठ इस देवी उषाके विषयमें ( 7.78.2 ) में इस प्रकार कहता है-' 'दिव्य उषा अपनी ज्योतिसे सब अंधकारों और बुराइयोंको हटाती हुई आ रही है,''1 (विश्वा तमांसि दुरिता ), और बहुतसे मंत्रोंमें इस देवीका वर्णन इस रूपमें किया गया है कि वह मनुष्योंको जगा रही है, प्रेरित कर रही है, ठीक मार्गकी ओर, सुखकी ओर (सुविताय ) ।
इसलिये वह केवल सुखमय सत्योंकी ही नहीं, किन्तु हमारी आध्यात्मिक समृद्धि और उल्लासकी भी नेत्री है, उस आनंदको लानेवाली है जिसतक ________________ 1. उषा याति ज्योतिषा वाषमाना विश्वा तमांसि दुरिताय देवी | (7.78.2) १८४ मनुष्य सत्यके द्वारा पहुंचता है या जो सत्यके द्वारा मनुष्यके पास लाया जाता है, ( एषा मेत्री रषस: सूनृतामाम्, 7.76. 7 ) । यह समृद्धि जिसके लिये ऋषि प्रार्थना करते हैं भौतिक ऐश्वर्योंके अलंकारसे. वर्णितकी गयी है; यह 'गोमद् अश्वावद् वीरवद्' है, या यह 'गोदाम्' अश्वावद् रथवच्च राधः' है | गौ (गाय ), अश्व ( घोड़ा ), प्रजा या अपत्य ( संतान ), नृ या वीर ( मनुष्य या शूरवीर ), हिरण्य ( सोना ), रथ ( सवारीवाला रथ ), श्रव: ( भोजन या कीर्ति ) -याज्ञिक संप्रदायवालोंकी व्याख्याके अनुसार ये ही उस संपत्तिके अंग हैं जिसकी वैदिक ऋषि कामना करते थे । यह लगेगा कि इससे अधिक ठोस दुनियावी, पार्थिव और भौतिक दौलत कोई और नहीं हो सकती थी; नि:संदेह ये ही थे ऐश्वर्य हैं जिनके लिये कोई बेहद भूखी, पार्थिव वस्तुओंकी लोभी, कामुक, जंगली लोगोंकी जाति अपने आदि देवोंसे याचना करती । परंतु हम देख चुके हैं कि 'हिरण्य' वेदमें भौतिक सोनेकी अपेक्षा दूसरे ही अर्थमें प्रयुक्त किया गया है । हम देख आये हैं कि 'गौएं' निरन्तर उषाके साथ संबद्ध होकर बार-बार आती हैं, कि यह प्रकाशके उदय होने का आलंकारिक वर्णन होता है और हम यह भी देख चुके हैं कि इस प्रकाशका संबंध मानसिक दर्शनके साथ है और उस सत्यके साथ है जो सुख लाता है । और अश्व, घोड़ा, आध्यात्मिक भावोंके निर्देशक इन मूर्त्त अलंकारोंमें सर्वत्र गौके प्रतीकात्मक अलंकारके साथ जुड़ा हुआ आता है; उषा 'गोमती अश्वावती' है । वसिष्ठ ? ॠषिकी एक ॠचा ( 7.77.3 ) है जिसमें वैदिक अश्वका प्रतीकात्मक अभिप्राय बड़ी स्पष्टता और बड़े बलके साथ प्रकट होता है--
देवानां चक्षु: सुभगा वहन्ती, श्वेतं नयन्ती 'सुदृशीकमश्वम् । उषा अदर्शि रश्मिभिर्व्यक्ता, चित्रामधा विश्वमनु प्रभूता ।।
'देवोंकी दर्शनरूपी आंखको लाती हुई, पूर्ण दूष्टिवाले सफेद घोड़ेका नेतृत्व करती हुई सुखमय उषा रश्मियों द्वारा व्यक्त होकर दिखायी दे रही है; यह अपने चित्रविचित्र ऐश्वर्योंसे परिपूर्ण है, अपने जन्मको, सब वस्तुओंमें अभिव्यक्त कर रही है ।' यह पर्याप्त स्पष्ट है कि 'सफेद घोड़ा' पूर्णतया प्रतीकरूप ही हैं१ ( सफेद घोड़ा यह मुहावरा अग्निदेवताके लिये प्रयुक्त । _______________ 1. घोड़ा प्रतीकरूप हो है, यह पूर्णतया स्पष्ट हो जात है दीर्धतमस् के सूक्तों में जो कि यज्ञ के घोड़े के सम्बन्ध में हैं, अश्व दीर्धक्रावन्-विषयक भिन्न भिन्न ॠषियों के सूक्तों में और फिर बृहदारण्क उपनिषद् के आरम्भ में जहाँ वह जटिल आलंकारिक वर्णन है जिसका आरम्भ "उषा घोड़े का सिर है" ( उषा वा अवश्य मेष्यस्य शिरः) इस वाक्य से होता है | १८५ किया गया है जो अग्नि कि 'द्रष्टाका संकल्प' है कविक्रतु है, दिव्य संकल्पकी अपने कार्योंको करनेकी पूर्ण दृष्टि-शक्ति है । ( 5. 1 .4.) 1 और वे 'चित्र-विचित्र ऐश्वर्य' भी आलंकारिक ही हैं जिन्हें वह अपने साथ लाती है, निश्चय ही उनका अभिप्राय भौतिक धन-दौलतसे नहीं है |
उषाका वर्णन किया गया है कि वह 'गोमती अश्वावती वीरवती' है और क्योंकि उसके साथ लगाये गये 'गोमती' और 'अश्वावती' ये दो विशेषण प्रतीकरूप हैं और इनका अर्थ यह नहीं है कि वह 'भौतिक गौओं और भौतिक घोड़ोवाली' है बल्कि यह अर्थ है कि वह ज्ञानकी क्योतिसे जग-मगानेवाली और शक्तिकी तीव्रतासे युक्त है, तो 'वीरवती'का अर्थ भी यह नहीं हो सकता कि वह 'मनुष्योंवाली है या शूरवीरों, नौकर-चाकरों वा पुत्रोंसे युक्त' है, बल्कि इसकी अपेक्षा इसका अर्थ यह होगा कि वह विजय-शील शक्तियोंसे संयुक्त है अथवा यह शब्द विल्कुल इसी अर्थमें नहीं तो कम-से-कम किसी ऐसे ही और प्रतीकरूप अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है । यह बात 1.113. 18 में बिलकुल स्पष्ट हो जाती है । 'या गोमतीरुषस: सर्व- बीरा:...ता अश्ववदा अश्वनवत् सोमसुत्वा ।' इसका यह अर्थ नहीं है कि 'वे उषाएं जिनमें कि भौतिक गायें हैं और सब मनुष्य या सब नौकर-चाकर हैं, उन्हें सोम अर्पित करके मनुष्य उनका भौतिक घोड़ोंको देनेवाली के रूपमें उपभोग करता हैं ।' उषा देवी यहाँ आन्तरिक उषा है जो कि मनुष्यके लिये उसकी बृहत्तम सत्ताकी विविध पूर्णताओंको, शक्तिको, चेतना को और प्रसन्नताको लाती हैं; यह अपनी ज्योतियोंसे जगमग है, सब संभव शक्तियों और बलोंसे युक्त है, यह मनुष्यको जीवन-शक्तिका पूर्ण बल प्रदान करती है, जिससे कि वह उस वृहत्तर सत्ताके असीम आनंदका स्वाद ले सके ।
अब हम अधिक देर तक 'गोमद् अश्वावद् वीरवद् राध:'को भौतिक अर्थोमें नहीं ले सकते; वेदकी भाषा ही हमें इससे बिलकुल भिन्न तथ्यका निर्देश कर रही है । इस कारण देवों द्वारा दी गयी इस संपत्तिके अन्य अंगोंको भी हमें इसीकी तरह अवश्यमेव आध्यात्मिक अर्थोमें ही लेना चाहिये; संतान, सुवर्ण, रथ ये प्रतीकरूप ही हैं; 'श्रव:' कीर्त्ति या भोजन नहीं है, बल्कि इसमें आध्यात्मिक अर्थ अन्तर्निहित हैं और इसका अभिप्राय है वह उच्चतर दिव्य ज्ञान जो इन्द्रियों या बुद्धिका विषय नहीं है बल्कि ___________________ 1 अग्निम्च्छा देवयतां मनांसि चक्षूंवीव सूर्ये सं चरन्ति । यदीं सुवाते उषसा विरूपे श्वेतो वाजी जायते अग्रे अह्नाम् || (5.1.4) १८६ जो सत्यकी दिव्य श्रुति है और सत्यके दिव्य दर्शन से प्राप्त होता है; 'राध: दीर्धश्रुतमम् ( 7.81.5 ) 'रयिं श्रवस्यूम्' (7.75.2 ). सत्ताकी वह संपन्न अवस्था है, आध्यात्मिक समृद्धिसे युक्त वह वैभव है जो दिव्य ज्ञानकी ओर प्रवृत्त होता है (श्रवस्यु ) और जिसमें उस दिव्य शब्दके कम्पनोंको सुननेके लिये सुदीर्ध, दूर तक फैली श्रवणशक्ति है, जो दिव्य शब्द हमारे पास असीमके प्रदेशों (दिश: ) से आता है । इस प्रकार उषाका यह उज्ज्वल अलंकार हमें वेदसंबंधी उन सब भौतिक, कर्भकाण्डिक, अज्ञानमूलक भ्रांतियों-से मुक्त कर देता है जिनमें यदि हम फँसे रहते तो वे हमें असंगति और अस्पष्टताकी रात्रिमें ठोकरों-पर-ठोकरें खिलाती हुई एकसे दूसरे अंधकूपम ही गिराती रहती; यह हमारे लिये बंद द्वारोंको खोल देती है और वैदिक ज्ञानके ह्रदयके अंदर हमारा प्रवेश करा देती है । १८७
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